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हमारी भारतीय संस्कृति में पर्व-त्योहारों का विशेष महत्व है। भादो माह की अष्टमी को श्री कृष्ण का जन्मोत्सव बड़े ही हर्षोउल्लास से मनाया जाता है। हमारे नीरस जीवन में पर्व-त्योहार नई आशा और स्फूर्ति प्रदान करते हैं।
श्री कृष्ण की महिमा की व्याख्या मुझ जैसे साधारण इन्सान के वश की बात नहीं। अपने साधारण ज्ञान के आधार पर एक प्रसंग के बारे में बताना चाहती हूँ कि श्री कृष्ण के कई नाम हैं- देवकीनंदन, वासुदेव, यशोदानंदन, नंदलाल, श्याम, मनमोहन, गोपाल,कान्हा, मुरलीधर। उनसे हर उम्र के प्राणी प्रेम करते थे। इस प्रेमस्वरूप ही उनको कई नाम मिले। ज्ञान को सम्पूर्णता प्रेम ही प्रदान करता है, बिना प्रेम के ज्ञान ठीक वैसे ही है जैसे बिना सुगंध के पुष्प। श्री कृष्ण ने प्रेम को ही ज्ञान का मार्ग बताया। उनका मनोहारी रूप देखकर एक बार एक गोकुलवासी ने कहा- “कान्हा तुम्हारा स्वरूप इतना सुन्दर है कि तुम पर आँखें ठहरती ही नहीं, तुम्हें जी भर देख भी नहीं पाते।” उनके मुखमंडल पर इतना तेज था, तब श्री कृष्ण ने स्व से रूप को अलग कर दिया वही रूप श्री राधा कहलाईं। स्व में श्याम का श्याम वर्ण रह गया और उजले आभा वाला वर्ण रूप यानि श्री राधा जी हैं। वो कृष्ण से अलग नहीं कृष्ण का ही रूप हैं जिसमें स्व यानि अभिमान अहंकार नहीं है और इसलिए श्री कृष्ण से पहले श्री राधा जी का नाम लिया जाता है।
कृष्ण-लीला में वात्सल्य, श्रृंगार और गीता के ज्ञान सबका समावेश है। मेरी रचनाओं के रूप में श्रद्धा-सुमन श्री कृष्ण को अर्पित हैं।
तांका
जाके सर पे
मोर मुकुट सोहे
जाके तन पे
पीला पीताम्बर है
मुख नीलाम्बर है
नख पे धरे
गोवर्धन पर्वत
उबार लिया
भक्तों को संकट से
वो कृष्ण-कन्हैया है
भजन
सांवला सलोना तेरा रूप ओ कान्हा
मैंने भी अपने मन मंदिर में बसाया
मैं अज्ञानी जान ना पाई तेरी माया
किसी ने भी तो ना भेद तेरा पाया
देव तपस्वी ऋषि सबने तेरा ध्यान लगाया
बिन तेरे सहारे इस भव सागर से
पार किसी ने ना पाया
यूँ छुप-छुप ना तरसाओ ओ छलिया
देखी जो स्वप्नों में छवि मनोहारी
कभी तो सम्मुख आ जाओ मन बसिया
प्रत्यक्ष दरश दिखा जाओ ओ कान्हा
राधा की मानी गोपियों की मानी
और मीरा की भी मानी
क्यूँ बस मेरी ही ना मानी
मैं भी तो हूँ तेरी दरश दीवानी
अपनी प्रेम-सुधा मुझ पर भी तो बरसाओ ओ कान्हा
सांवला सलोना तेरा रूप ओ कान्हा
मैंने भी तो अपने मन मंदिर में बसाया
– सुधा जयसवाल
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