Indradhanush
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हे! मेरे ईश
छुपे हो तुम कहाँ
ढूंढें अँखियाँ
जानती हूँ मैं
हो मेरे अंतस में
बेकल हूँ क्यूँ
स्वयं से बात
नहीं हुई कब से
कारण यही
रहना तुम
यूँ ही सदा मुझमे
स्व बनकर
चंचल नदी
है अभी मेरा मन
सागर है तू
ज्ञान सागर
तुझमे मिलकर
हो जाऊं पार
भवसागर
माया के संसार से
दिला दो मुक्ति
– सुधा जयसवाल
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